لولا هواكِ وعبرةُ الأحداقِ
| *** | ما حمَّتِ الأشواقُ في أعماقي
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قد كنتُ خلفَ ظلالِ حبِّك متعباً
| *** | والقلبُ لا يقوى على الأشواقِ
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فمتى يحينُ الوصلُ من بعد النوى
| *** | وأرى بوجهكِ جنّة الخلّاق
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والروحُ من فرطِ الهوى أمويّةٌ
| *** | نالتْ مناها دونَ أي سباقٍ
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أمويّةٌ غصبًا وما من ثائرٍ
| *** | يرضى بعيشِ الزورِ والإملاقِ
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وكأنّ دمعي حينَ هلَّ لوجنتي
| *** | بردى يهلُّ لغوطةِ العشاقِ
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وكأنني طفلٌ يراقب أمّهُ
| *** | ويهمّ عند قدومها بعناق
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ويظلُ في دربِ الأماني لا يري
| *** | إلا السرابَ يلوحُ في الآفاق
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وإلى دمشقَ يطيرُ قلبي هائماً
| *** | والروحُ تسري دونَ أي براقِ
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وبمديةِ الحقدِ الدفينِ بقلبهم
| *** | طعنَ الروافضُ زهرةَ الأعناقِ
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وعلتْ زنازينَ الكرامةِ أنّةٌ
| *** | ممزوجةٌ بالصبرِ والإشفاقِ
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هتكتْ حجابَ الروحِ سطوةُ مخلبٍ
| *** | فيها خيانةُ مشملٍ مخراقِ
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للهِ أيامٌ مضينَ بعزّة
| *** | غرٌّ تريكَ أكارمَ الأعراقِ
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سمرٌ سواعدُ أهلهَا بكرامةٍ
| *** | بيضُ الجباهِ بعيدةُ الإطراقِ
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إن كنتِ تشتاقينَ أمجاداً مضتْ
| *** | ورجالَ حقٍّ أهل يومِ نزاقِ
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ورجالَ حقٍّ أهل يومِ نزاقِ
| *** | ويفيضُ منها رونقُ الإشراقِ
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